उत्तर- 'ठिठुरता हुआ गणतंत्र' शीर्षक परमाईजी को एक व्यंग्य रचना है। इसमें देश को लोकतांत्रिक व्यवस्था पर व्यंग्य किया गया है। कहा जाता है देश विकास कर रहा है, जबकि देखने को मिलते हैं काले कारनामे ।
स्वतंत्रता दिवस पर होने वाली बरसात मौसम की बरसात पर व्यंग्यकार कहता है स्वतंत्रता दिवस भी तो बरसात में होता है। अंग्रेज बहुत चालाक हैं।
भर बरसात में स्वतंत्र करके चले गए। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाए। वह बेचारी बस स्टैंड जाती है, तो उसे प्रेमी को नहीं छाता चोर की याद सताती है।
स्वतंत्रता दिवस भोगता है और गणतंत्र दिवस ठिठुरता है।"
गणतंत्र दिवस पर झांकियों निकलती हैं। ये झौकियों झूठ बोलती हैं। इनमें विकास कार्य, जन जीवन, इतिहास इत्यादि रहते हैं। हर वर्ष घोषणा होती है समाजवाद आ रहा है।
लेकिन यह सत्य नहीं है। साठ वर्ष आजादी के होने जा रहे हैं। समाजवाद अभी तक नहीं आया।
व्यंग्यकार एक सपना देखता है। समाजवाद आ गया है. बस्ती के बाहर टोने पर खड़ा है। अब प्रश्न यह है कि कौन इसे पकड़कर लाएगा समाजवादी या पूँजीवादी, संसोपा प्रसोपावाले या कम्युनिस्ट कांग्रेसी समाजवाद लाएँगे या सोशलिस्ट इसी में समाजवाद अटका हुआ है।
निष्कर्षत :- भारत का गणतंत्र (26 जनवरी) ठिठुरता हुआ आता है। बड़ी ही कौतूहलवर्द्धक यह रचना बन पड़ी है- 'ठिठुरता हुआ गणतंत्र'।
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