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कंचा new (कहानी)



वह नीम के पेड़ों की घनी छाँव से होता हुआ सियार की कहानी का व मजा लेता आ रहा था। हिलते-डुलते उसका बस्ता दोनों तरफ झूमता खनकता था।

 स्लेट कभी छोटी शीशी से टकराती तो कभी पेंसिल से। यों वे सब उस बस्ते के अंदर टकरा रहे थे। मगर वह न कुछ सुन रहा था, न कुछ देख रहा था। उसका पूरा ध्यान कहानी पर केंद्रित था। कैसी मजेदार कहानी! कौए और सियार की। सियार कौए से बोला-"प्यारे कौए, एक गाना गाओ न. तुम्हारा गाना सुनने के लिए तरस रहा हूँ।"

 कौए ने गाने के लिए मुँह खोला तो रोटी का टुकड़ा जमीन पर गिर पड़ा। सियार उसे उठाकर नौ दो ग्यारह हो गया। वह जोर से हँसा। बुद्ध कौआ। वह चलते चलते दुकान के सामने

पहुँचा। वहाँ अलमारी में काँच के बड़े बड़े जार कतार में रखे थे. उनमें चॉकलेट, पिपरमेंट और बिस्कुट थे। उसकी नज़र उनमें से किसी पर नहीं पड़ी। क्यों देखे ?.. उसके पिता जी ये चीजें बराबर ला देते हैं।


फिर भी एक नए जार ने उसका ध्यान आकृष्ट किया। वह कंधे से लटकते बस्ते का फीता एक तरफ हटाकर, उस जार के सामने खड़ा टुकर टुकर ताकता रहा। नया नया लाकर रखा गया है। उससे पहले उसने वह चीज यहाँ नहीं देखी है।पूरे जार में कंचे हैं। हरी लकीरवाल बढ़ियाँ

सफेद गोल कंचे। बड़े आँवले जैसे कितने खूबसूरत हैं। अब तक ये कहाँ थे? शायद दुकान के अंदर। अब दुकानदार ने दिखाने के लिए बाहर रखा होगा।

उसके देखते-देखते जार बड़ा होने लगा। वह आसमान सा बड़ा हो गया तो वह भी उसके भीतर आ गया। वहाँ और कोई लड़का तो नहीं था। फिर भी उसे वही पसंद था। छोटी बहन के हमेशा के लिए चले जाने के बाद वह अकेले ही खेलता था। वह कंचे चारों तरफ़ बिखेरता मजे में खेलता रहा। तभी एक आवाज़ आई। 'लड़के, तू उस जार को नीचे गिरा देगा।"

वह चौंक उठा। जार अब छोटा बनता जा रहा था। छोटे जार में हरी लकीरवाले सफेद गोल कचे छोटे आँवले जैसे। सिर्फ़ दो जने वहाँ हैं। वह और बूढ़ा दुकानदार। दुकानदार के चेहरे पर कुछ चिड़चिड़ाहट थी। “मैंने कहा न! जो चाहते हो वह मैं निकालकर दूँ।" वह उदास हो अलग खड़ा रहा। “क्या कंचा चाहिए?" दुकानदार ने जार का ढक्कन खोलना शुरू किया। उसने निषेध में सिर लाया।


"तो फिर?"

सवाल खूब रहा। क्या उसे कंचा चाहिए? क्या चाहिए? उसे खुद मालूम नहीं है। जो भी हो, उसने कंचे को छूकर देखा। जार को छूने पर कंचे का स्पर्श करने का अहसास हुआ। अगर वह चाहता तो

कंचा ले सकता था। लिया होता तो?

स्कूल की घंटी सुनकर वह बस्ता थामे हुए दौड़ पड़ा।

देर से पहुँचनेवाले लड़कों को पीछे बैठना पड़ता है। उस दिन वही सबके बाद पहुँचा था। इसलिए वह चुपचाप पीछे की बेंच पर बैठ गया।

सब अपनी-अपनी जगह पर हैं। रामन अगली बेंच पर है। वह रोज समय पर आता है। तीसरी बेंच के आखिर में मल्लिका के बाद अम्मु बैठी है।

जॉर्ज दिखाई नहीं पड़ता। लड़कों के बीच जॉर्ज ही सबसे अच्छा कंचे का खिलाड़ी है। कितना भी बड़ा लड़का उसके साथ खेले. जॉर्ज से मात खाएगा। हारने पर यों ही विदा नहीं हो। सकता। हारे हुए को अपनी बंद मुट्ठी ज़मीन पर रखनी होगी। तब जॉर्ज कचा चलाकर बंद मुट्ठी के जोड़ों की हड्डी तोड़ेगा।

जॉर्ज क्यों नहीं आया?

अरे हाँ! जॉर्ज को बुखार है न! उसे रामन ने यह सूचना दी थी। उसने मल्लिक को सब बताया था। जॉर्ज का घर रामन के घर के रास्ते में पड़ता अप्पू कक्षा की तरफ़ ध्यान नहीं दे रहा है। है।


मास्टर जी!

उसने हड़बड़ी में पुस्तक खोलकर सामने रख ली। रेलगाड़ी का सबक था। रेलगाड़ी... रेलगाड़ी। पृष्ठ सैंतीस। घर पर उसने यह पाठ पढ़ लिया है। मास्टर जी बीच-बीच में बेंत से मेज़ ठोकते हुए ऊँची आवाज़ में कह रहे थे-“बच्चो! तुममें से कई ने रेलगाड़ी देखी होगी। उसे भाप की गाड़ी भी कहते हैं क्योंकि उसका यंत्र भाप की शक्ति ले ही चलता है। भाप का मतलब पानी से निकलती भाप से है। 

तुम लोगों के घरों के चूल्हे में भी...।" अप्पू ने भी सोचा-रेलगाड़ी! उसने रेलगाड़ी देखी है। छुक-छुक..यही रेलगाड़ी है। वह भाप की भी गाड़ी का मतलब...। मास्टर जी की आवाज़ अब कम ऊँची थी। वे रेलगाड़ी के हर एक हिस्से के बारे में समझा रहे थे। "पानी रखने के लिए खास जगह है इसे अंग्रेजी में बॉयलर कहते हैं या लोहे का एक बड़ा पीपा है।

लोहे का एक बड़ा काँच का जार। उसमें हरी लकीरवाले सफ़ेद गोल कंचे। बड़े आँवले जैसे जॉर्ज जब अच्छा होकर आ जाएगा, तब उससे कहेगा। उस समय जॉर्ज कितना खुश होगा! सिर्फ़ वे दोनों खेलेंगे और किसी को साथ खेलने नहीं देंगे।

उसके चेहरे पर चॉक का टुकड़ा आ गिरा। अनुभव के कारण वह उठकर खड़ा हो गया। मास्टर जी गुस्से में हैं। "अरे, तू उधर क्या कर रहा है?" उसका दम घुट रहा था। "बोल।" वह खामोश खड़ा रहा। "क्या नहीं बोलेगा?"

वे अप्पू के पास पहुँचे। सारी कक्षा साँस रोके हुए उसी तरफ़ देख रही है। उसकी घबराहट बढ़ गई।


"मैं अभी किसके बारे में बता रहा था?".

और कर्मठ मास्टर जी उस लड़के का चेहरा देखकर समझ गए कि उसके मन में कुछ है। शायद उसने पाठ पर ध्यान दिया भी हो। अगर दिया है तो उसका जवाब उसके मन से बाहर ले आना है। इसी में उनकी सफलता है। "हाँ, हाँ, बता डरना मत। " मास्टर जी ने देखा, अप्पू की जवान पर जवाब था।

'हाँ, हाँ...।"

वह काँपते हुए बोला "कंचा।"

"कंचा...!"

वे सकपका गए।

कक्षा में भूचाल आ गया।

"स्टैंड अप!"

मास्टर साहब की आँखों में चिनगारियाँ सुलग रही थीं।

अप्पू रोता हुआ बेंच पर चढ़ा। पड़ोसी कक्षा की टीचर ने दरवाजे से झाँककर देखा। फिर सम्मिलित हँसी।
रोकने की पूरी कोशिश करने पर भी वह अपना दुख रोक नहीं सका। सुबकता रहा। रोते-रोते उसका दुख बढ़ता ही गया। सब उसकी तरफ़ देख-देखकर उसकी

हँसी उड़ा रहे हैं। रामन, मल्लिका... सब

बेंच पर खड़े-खड़े उसने सोचा, दिखा दूँगा सबको। जॉर्ज को आने दो। जॉर्ज जब आए... जॉर्ज के आने पर वह कंचे खरीदेगा। इनमें से किसी को वह खेलने नहीं बुलाएगा। कंचे को देख ये ललचाएँगे। इतना खूबसूरत कंचा है। हरी लकीरवाले सफ़ेद गोल कंचे। बड़े आँवले जैसे। तब... शक हुआ। कंचा मिले कैसे? क्या माँगने पर दुकानदार देगा? जॉर्ज को साथ लेकर पूछें तो, नहीं दे तो?



"किसी को शक हो तो पूछ लो।" मास्टर जी ने उस घंटे का सबक समाप्त किया। "क्या किसी को कोई शक नहीं?" अप्पू की शंका अभी दूर नहीं हुई थी। वह सोच रहा था-क्या जॉर्ज को साथ ले चलने पर दुकानदार कंचा नहीं देगा? अगर खरीदना ही पड़े तो कितने पैसे लगेंगे?
रामन ने मास्टर जी से सवाल किया और उसे सवाल का जवाब मिला। अम्मिणि ने शंका का समाधान कराया।

कई छात्रों ने यह दुहराया। 'अप्पू, क्या सोच रहे हो?"

मास्टर जी ने पूछा। "हूँ. पूछ लो न? शंका क्या है?"
शंका जरूर है। 

क्या जॉर्ज को साथ ले चलने पर दुकानदार कंचे देगा? नहीं तो कितने पैसे लगेंगे?

 क्या पाँच पैसे में मिलेगा, दस पैसे में? "क्या सोच रहे हो?"

"पैसे?" "क्या?"

“कितने पैसे चाहिए!" "किसके लिए?"

वह कुछ नहीं बोला। हरी लकीरवाले सफ़ेद गोल कंचे उसके सामने से फिसलते गए। "क्या रेलगाड़ी के लिए?"

मास्टर जी ने पूछा।

उसने सिर हिलाया।

"बेवकूफ़! रेलगाड़ी को पैसे से खरीद नहीं सकते। अगर मिले तो उसे लेकर क्या करेगा ?"


वह खेलेगा। जॉर्ज के साथ खेलेगा। रेलगाड़ी नहीं, कंचा। चपरासी एक नोटिस लाया। मास्टर जी ने कहा, "जो फ़ीस लाए हैं, वे ऑफ़िस जाकर जमा कर दें।"

बहुत छात्र गए। राजन ने जाते-जाते अप्पू के पैर में चिकोटी काट ली। उसने पैर खींच लिया। उसे याद आया। उसे भी फ़ीस जमा करनी है। पिता जी ने उसे डेढ़ रुपया इसके लिए दिया है।

उसने अपनी जेब टटोलकर देखा एक रुपये का नोट और पचास पैसे का सिक्का वह बेंच से उतरा। "किधर?" मास्टर जी ने पूछा। उसके कंठ से खुशी के बुलबुले उठे। “फ़ीस देनी है। " "फ़ीस मत देना।" मास्टर ने कहा। वह झिझकता रहा। "ऑन दि बेंच।" वह बेंच पर चढ़कर रोने लगा। 'क्या भविष्य में कक्षा में ध्यान से पढ़ेगा ?"

"ध्या... ध्यान दूँगा।" वह दफ़्तर गया। दफ़्तर में बड़ी भीड़ थी। बच्चो. एक-एक करके आओ। क्लर्क बाबू बता रहे हैं। पहले मैं आया हूँ।
कंचा

हूँ... मैं ही आया हूँ।

मेरे बाकी पैसे?

इस शोरगुल से अप्पू दूर खड़ा रहा। रामन ने फ़ीस जमा की। मल्लिका ने जमा की। अब थोड़े से लड़के ही बचे हैं। वह सोच रहा था- जॉर्ज को साथ लेकर चलूँ तो देगा न? शायद दे। नहीं तो कितने पैसे लगेंगे? पाँच पैसे दस पैसे। हरी लकीरोंवाले गोल सफ़ेद कंचे।

घंटी बजने पर फ़ीस जमा किए हुए सभी बच्चे उधर से चले। वह भी चला, मानो नींद से जागकर चल रहा हो।
"क्या सब फ़ीस जमा कर चुके ?" कक्षा छोड़ने के पहले मास्टर जी ने पूछा। वह नहीं उठा। शाम को थोड़ी देर इधर-उधर टहलता रहा। लड़के गीली मिट्टी में छोटे गड्ढे खोदकर कंचे खेल रहे थे। वह उनके पास नहीं गया।

फाटक के सीखचे थामे, उसने सड़क की तरफ़ देखा। वहाँ उस मोड़ पर दुकान है। दुकान में अलमारी बाहर खड़े-खड़े छू सकेगा। अलमारी में शीशे के बार हैं। उनमें एक जार में पूरा... बस्ता कंधे पर लटकाए वह चलने लगा। दुकान नजदीक आ रही है।

उसकी चाल की तेजी बढ़ी। वह अलमारी के सामने खड़ा हो गया। दुकानदार हँसा। उसे मालूम हुआ कि दुकानदार उसके इंतज़ार में है। वह भी हँसा। "कंचा चाहिए, है न?"
उसने सिर हिलाया। दुकानदार जार का ढक्कन जब खोलने लगा तब अप्पू ने पूछा-“अच्छे कंचे हैं ना?"


"बढ़िया, फ़र्स्ट क्लास कंचे। तुम्हें कितने कंचे चाहिए?" कितने कचे चाहिए. कितने चाहिए, कितने? उसने जेब में हाथ डाला। एक रुपया और पचास पैसे हैं। उसने वह निकालकर दिखाया।

दुकानदार चौका- "इतने सारे पैसों के?" "सबके।"

पहले कभी किसी लड़के ने इतनी बड़ी रकम से कंचे नहीं खरीदे थे। "इतने कंचों की जरूरत क्या है?"

"वह मैं नहीं बताऊँगा।"

दुकानदार समझ गया। वह भी किसी जमाने में बच्चा रहा था। उसके साथी मिलकर खरीद रहे होंगे। यही उनके लिए खरीदने आया होगा। वह कंचे खरीदने की बात जॉर्ज के सिवा और किसी को बताना नहीं चाहता

था। दुकानदार ने पूछा- "क्या तुम्हें कंचा खेलना आता है?" वह नहीं जानता था।

"तो फिर?" कैसे-कैसे सवाल पूछ रहा है। उसका धीरज जवाब दे रहा था। उसने हाथ फैलाया। “दे दो।" दुकानदार हँस पड़ा। वह भी हँस पड़ा। कागज की पोटली छाती से चिपटाए वह नीम के पेड़ों की छाँव में चलने लगा। कचे अब उसकी हथेली में हैं। जब चाहे बाहर निकाल ले। उसने पोटली हिलाकर देखा।
कंचा

वह हँस रहा था।

उसका जी चाहता था काश! पूरा जार उसे मिल जाता। जार मिलता तो उसके छूने से ही कंचे को छूने का अहसास होता। एकाएक उसे शक हुआ। क्या सब कंचों में लकीर होगी? उसने पोटली खोलकर देखने का निश्चय किया। बस्ता नीचे रखकर वह धीरे से पोटली खोलने लगा।

पोटली खुली और सारे कंचे बिखर गए। वे सड़क के बीचोंबीच पहुँच रहे हैं। क्षणभर सकपकाने के बाद वह उन्हें चुनने लगा। हथेली भर गई। वह चुने हुए कंचे कहाँ रखे? स्लेट और किताब बस्ते से बाहर रखने के बाद कंचे बस्ते में डालने लगा। एक, दो, तीन, चार... एक कार सड़क पर ब्रेक लगा रही थी।  वह उस वक्त भी कंचे चुनने में मग्न था।

  ड्राइवर को इतना गुस्सा आया कि उस लड़के को कच्चा खा जाने की इच्छा हुई। उसने बाहर झाँककर देखा, वह लड़का क्या कर रहा हॉर्न की आवाज़ सुन कंचे चुनते अप्पू ने बीच में सिर उठाकर देखा। सामने एक मोटर है और उसके भीतर ड्राइवर। उसने सोचा-क्या कंचे उसे भी अच्छे लग रहे हैं? शायद वह भी मज़ा ले रहा है।

एक कंचा उठाकर उसे दिखाया और हँसा-"बहुत अच्छा है न!" ड्राइवर का गुस्सा हवा हो गया। वह हँस पड़ा।
बस्ता कंधे पर लटकाए, स्लेट, किताब, शीशी, पेंसिल-सब छाती चिपकाए वह घर आया।

से।उसकी माँ शाम की चाय तैयार कर उसकी राह देख रही थी। बरामदे की बेंच पर स्लेट व किताबें फेंककर वह दौड़कर माँ के गले लग हुई थी। गया। उसके लौटने में देर होते देख माँ घबराई उसने बस्ता ज़ोर से हिलाकर दिखाया।

अरे! यह क्या है?" माँ ने पूछा।

"मैं नहीं बताऊंगा।" वह बोला।

“मुझसे नहीं कहेगा?"

"कहूँगा माँ, आँखें बंद कर लो।"

माँ ने आँखें बंद कर ली।

उसने गिना, वन टू. श्री....

माँ ने आँखें खोलकर देखा। बस्ते में कंचे-ही-कचे थे। वह कुछ और हैरान हुई। "इतने सारे कंचे कहाँ से लाया?"

“खरीदे हैं।" "पैसे?".

पिता जी की तसवीर की ओर इशारा करते हुए उसने कहा-“दोपहर को दिए थे न?" माँ ने दाँतों तले उँगली दबाई फ़ीस के पैसे? इतने सारे कंचे काहे को लिए? आखिर खेलोगे किसके साथ? उस घर में सिर्फ़ वही है। उसके बाद एक मुन्नी हुई थी। उसकी छोटी बहन। मगर...

माँ की पलकें भीग गई। उसकी माँ रो रही है। अप्पू नहीं जान सका कि माँ क्यों रो रही है। क्या कंचा खरीदने से? ऐसा तो नहीं हो सकता। तो फिर?

उसकी आँखों के सामने बूढ़ा दुकानदार और कार का ड्राइवर खड़े-खड़े हँस रहे थे। वे सब पसंद करते हैं। सिर्फ़ माँ को कंचे क्यों पसंद नहीं आए? शायद कंचे अच्छे नहीं हैं। बस्ते से आँवले जैसे कंचे निकालते हुए उसने कहा-“बुरे कंचे हैं, हैं न?"

"नहीं, अच्छे हैं।" "देखने में बहुत अच्छे लगते हैं न?"
"बहुत अच्छे लगते हैं।" वह हँस पड़ा। उसकी माँ भी हँस पड़ी। आँसू से गीले माँ के गाल पर उसने अपना गाल सटा दिया। अब उसके दिल से खुशी छलक रही थी।


(इस कहानी के लेखक है  टी. पद्मनाभन)

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